वह एक सुन्दरतम संध्या थी जिसे मैं आज तक उसी रूप में अनुभव कर पाता हूँ..इस अनुभूति के समय काल-भेद मिट जाता है..अतीत वर्तमान बनने को विवश हो जाता है और मैं स्वयं को काल की अखण्डता में देख पाता हूँ..गंगातट पर मैं बैठा हुआ था..संध्या-राग से परिपूर्ण भगवान सूर्य धीरे धीरे उसी तरह अनंत में विलीन होते जा रहे थे जैसे कोई ध्यानस्थ योगी धीरे धीरे चेतन विश्व से समाधि की अनंतता में प्रवेश करता जाता है. मंद पवन के संग संग ही माँ.गंगा के वक्ष पर कल कल करती हलकी तरंगें कभी कभी लहराने लगतीं थीं मानो उनका आँचल ही पवन-प्रवाह से लहरा रहा हो..आकाश की दिव्यता, धरा का आलिंगन कर, धन्य हो रही थी और धरा भी आकाश के अवतरण से आनंदमग्न थी..मेरा मन आँखों के द्वार से बहता हुआ, संध्या के उस अप्रतिम सौन्दर्य का अभिषेक कर रहा था..मेरी आयु उस समय १७ वर्ष की थी.उस समय रेडिओ सीलोन से ७ बजे शाम '' आज के कलाकार'' कार्यक्रम प्रसारित हुआ करता था..उस शाम आज के कलाकार में मुकेश जी के गीत आ रहे थे..पहली बार मैंने मुकेश जी के तीन गीत उस कार्यक्रम में सुने जिनमे पहला गीत था
'' ऐ सनम जिसने तुझे चाँद सी सूरत दी है.